कर्फ्यू के सन्नाटें में पुलिस का गरबा

- गायत्री शर्मा
सांप्रदायिकता की दीवारों ने हमारे दिलों में ऐसी दरारे डाल दी है कि जब किसी हिंदू पर आक्रमण होता है तो बगैर सोचे-समझे हम मुस्लिमों पर ऊँगली उठाने लगते हैं और जब किसी मुस्लिम को कोई गोली मार देता है तो हम हिंदूओं पर लाठियाँ लेकर बरस पड़ते हैं। क्या आज धर्म की कट्टरता की हैवानियत हमारी इंसानियत पर इतनी हावी हो गई है कि हर दिन एक साथ रहने और घूमने वाले राम-रहीम दंगों और कर्फ्यू के समय एक-दूसरे को ही मारने पर उतारू हो जाते है? पिछले दिनों मध्यप्रदेश के रतलाम शहर में हुई गोलीबारी की घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ। मुस्लिम और हिंदू नेताओं पर एक ही दिन में दो अलग-अलग स्थानों पर हुए जानलेवा हमला के बाद हमेशा की तरह राजनीति के कीचड़ में पत्थर फेंककर तमाशा देखने वाले छुटपुट नेताओं की राजनीति दम पकड़ने लगी। जिसके चलते भाजपा ने कांग्रेस को आरोपों के कटघरे में खड़ा किया और कांग्रेस भाजपा को। ऐसे में मरण हुआ बेचारे आम-आदमी का, जो दंगा, कर्फ्यू और मारपीट की घटनाओं के कारण अपना रोजगार छोड़ घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गया।
       क्या होता है कानून की उन धाराओं की पेचीदगी से, जो आम आदमी से उसका रोजगार व दो वक्त की रोटी ही छीन ले? मुझे आज नरेंद्र मोदी की मैडिसन स्केवयर पर कही वह बात याद आती है, जिसमें प्रधानंमत्री ने यह कहा कि लोग कानून बनाने की बात करते हैं और मैं कानून को खत्म करने की ताकि आम आदमी कानून की पेचीगदियों से बाहर निकल सके। यह सही भी है क्योंकि कानून की उलझनों में हर बार बेचारा आम आदमी ही दम तोड़ता है कोई राजनेता या व्यवसायी नहीं। बड़ी घटनाओं में मारा कोई मंत्री जाता है पर धारा 144 की उलझनों में आम आदमी फँस जाता है। जिसकी वजह से शहरों में दंगे भड़कते हैं और कर्फ्यू के हालात बनते है, उन नेताओं की गाड़ी पर लगी बत्ती तो उन्हें दंगों और कर्फ्यू से भी राहत दिला देती है। पर हमारे पास तो न कोई लाल, पीली, नीली बत्ती है और न कोई प्रेस का कार्ड। हमारे पास है तो बस भारत के नागरिक होने का पहचान पत्र, जो न तो कभी दंगों में काम आता है और न किसी कर्फ्यू में राहत दिलाता है। कितनी हास्यास्पद बात है यह कि आम आदमी को नेता के रूप में ‘खास’ बनाने वाले आम आदमी का वजूद भी देश में कितना आम हो गया है।            
रतलाम में मुस्लिम महिला पार्षद को अज्ञात हमलावरों द्वारा गोली मारने की घटना के कुछ ही घंटों के भीतर शहर के बंजरग दल के नेताओं पर जानलेवा हमला हो जाता है। हो सकता है इन घटनाओं के पीछे कोई सोची-समझी साजिश हो या यह भी हो सकता है कि ये दोनों घटनाएँ एक-दूसरे की प्रतिक्रियास्वरूप न होकर कुछ अलग ही मामले हो। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि जब हिंदू-मुस्लिम के साथ एक ही दिन में एक सी घटना घटित होती है तो दोनों कौमों का एक-दूसरे के विरोध में खड़ा होना और दंगों का भड़कना स्वभाविक ही होता है। फिर चाहें ऐसी घटना मध्यप्रदेश में हो या उत्तर प्रदेश में हो या फिर भारत के किसी ओर राज्य में। सच कहा जाएं तो हमारे विश्वास की डोर इतनी कमजोर है कि देश में हिंदू-मुस्लिम दंगे मात्र अफवाहों की आँधी से भी भड़क जाते हैं।
        सोने की चमक से चमकने वाला चाँदनीचौक, सेव की महक से महकने वाला स्टेशन रोड और साडि़यों के ग्राहकों से सजने वाला माणकचौक चार दिनों तक कर्फ्यू से उपजे सन्नाटे व दंगों के खौफ के साये में खामोश रहा। सड़के सूनी रही और व्यापार-व्यवसाय ठप्प। ऐसे में आम आदमी के कानों में हर दस मिनिट सुनाई देने वाली पुलिस की गाडि़यों के साइरन की आवाजे ही गूँज रही थी। खाकी वर्दी वालों के खौफ के माहौल में शहर में दिनभर में क्या, कब, कैसे और क्यों हुआ, इसकी खबर आम आदमी को उड़ती-उड़ती अफवाहों से मिलने लगी। क्या आप जानते हैं कि कर्फ्यू के चलते बोझा ढ़ोकर रोजी-रोटी कमाने वाला मजदूर परिवार चार दिन तक भूखा सोया, दूध की आस में कई नन्हीं आँखों ने टकटकी लगाई और दवाई की आस में कई बूढ़े गले खासने लगे? इधर डेंगू और मलेरिया से मरीज घरों में कराह रहे थे और उधर घर से बाहर निकलने वालों पर पुलिस वाले डंडे बरसा रहे थे। पिछले दो ‍दिनों से कर्फ्यू से मिली कुछ घंटों की राहत में राशन की दुकानों पर ग्राहकों की भीड़ से मेले लगने लगे। ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की तर्ज पर महिलाएँ छूट में मिली चुटकी भर राहत में परिवार के राशन का इंतजाम करने नंगे पैर घरों से निकली। कर्फ्यू में राहत की संक्षिप्त समय सीमा के चलते राशन की कतार में अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को अक्सर खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि उसका नंबर आने से पहले ही राशन वाला स्टॉक न होने के कारण भीड़ के हाथ जोड़ लिए। नवरात्रि के दिन है पर गरबा पांडाल सूने पड़े हैं ऐसा लग रहा है इस नवरात्रि में शहर में बालिकाएँ नहीं बल्कि खाकी वर्दी वाले अपनी गाडि़यों के सायरन की आवाजों और डंडों की ठक-ठक के साथ शहरभर में गरबा नृत्य कर रहे हैं। इस कर्फ्यू में बस एक चीज पुलिस की सख्ती से नहीं रूकी और वह थी बादलों से बरसने वाली बरसात। जिस पर न पुलिस के डंडों का जोर चला और न ही कर्फ्यू का खौफ।
       मेरा आप सभी से प्रश्न है कि आखिर क्या होगा इस कर्फ्यू से, भागने वाला आरोपी तो गोली मारकर कब से भाग चुका होगा और पुलिस हर बार की तरह आम आदमी के साथ ही सख्ती दिखाएगी। आखिर क्यों नहीं हम सभी मिल-जुलकर शांतिपूर्ण तरीके से इन घटनाओं का विरोध प्रदर्शन करते हैं, जिससे कि शहरवासियों को कर्फ्यू की मार न झेलना पड़े? ऐसी घटनाओं की निंदा करना लाजिमी है पर दलगत राजनीति से परे भी विरोध का एक सही व शांतिपूर्ण तरीका हो सकता है। यह वहीं भारत है, जहाँ हम सभी हिंदू-मुस्लिम एक साथ रहते हैं, एक सा पानी पीते हैं, एक ही प्रकार की वायु में साँस लेते हैं लेकिन न जाने क्यों धर्म की कट्टरता के नाम पर हम जेहाद की नंगी तलवारे लिए एक-दूसरे पर बरस पड़ते है? पुलिस की छावनी में किसी भी शहर की तब्दीली से हिंदू या मुस्लिम किसी का कुछ भला नहीं होने वाला है। इससे तो उल्टा हमारा ही नुकसान होगा क्योंकि हममें से जब कोई घर से बाहर निकलकर जाने की कोशिश करेगा तो पुलिस की लाठियों की मार पड़ने से दंगे की आग थमने की बजाय और तेजी से भभक उठेगी। मेरी आप सभी से विनती है कि कृपया शांतिपूर्ण माहौल बनाएं, जिससे कर्फ्यू खुलने की उम्मीद जागें और हमारे शहर के बाजार फिर से नमकीन की तीखी महक, सोने की पीली चमक व साडि़यों के चटख रंगों की खूबसूरती की रौनक से गुलजार हो जाएं।
 
नोट : कर्फ्यू में आमजन की जिंदगी किस तरह बद से बदतर हो जाती है और 'करे कोई, भरे कोई' की तर्ज पर उसकी रोजी रोटी पर लात पड़ जाती है। इस पर मेरी कलम ने कुछ लिखने का प्रयास किया है। 1 अक्टूबर 2014, बुधवार को रतलाम के प्रमुख सांध्य दैनिक 'रतलाम दर्शन' व 2 अक्टूबर 2014, गुरूवार के अंक में रतलाम के अन्य प्रमुख सांध्य दैनिक 'सिंघम टाइम्स' में प्रकाशित मेरा लेख 'कर्फ्यू के सन्नाटे में पुलिस का गरबा'। मेरे इस लेख के माध्यम से आप भी लीजिए रतलाम में कर्फ्यू के हालात का जायज़ा। 
इस ब्लॉग से किसी भी सामग्री का प्रयोग करते समय साभार देना व सूचनार्थ मेल प्रेषित करना न भूलें।  

Comments

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

रतलाम में ‘मालवी दिवस’ रो आयोजन