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Showing posts from September, 2014

जय हो 'मोदी'

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- गायत्री  कल संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुनना और आज न्यूयार्क के मैडिसन स्केवयर गार्डन पर नरेंद्र मोदी का परिवार के किसी सदस्य की तरह अमेरिका के प्रवासी भारतीयों से मुखातिब होना दोनों ही आयोजन मोदी की मौजूदगी व उनके वक्तव्य की सकारात्मक ऊर्जा के कारण सदा-सदा के लिए यादगार बन गए। इन दोनों ही आयोजनों में मोदी का वक्तव्य मौके की नब्ज़ को भाँपकर चौका मारने के बेमिसाल उदाहरण थे। कल मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय से विश्व की सबसे बड़ी समस्या ‘आतंकवाद’ को खत्म करने हेतु दुनिया के सभी देशों के सम्मिलित सहयोग की बात कह जहाँ सभी देशों को एकजुट होने का संदेश दिया वहीं अपने वक्तव्य में मोदी ने बाहरी आक्रमणों के समय सैन्य शक्ति व बलिदान देने वाले छोटे-छोटे देशों की निर्णय में भूमिका को बढ़ावा देने की महत्वपूर्ण बात भी कही। भारतीयों की क्षमता व कौशल को विश्व के विकास में महत्वपूर्ण बताकर मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से भारत की शक्ति का जयघोष दुनियाभर में कर दिया। कल के धमाकेदार भाषण के बाद आज मैडिसन स्केवयर गार

‘संजा’ के रूप में सजते हैं सपने

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कुँवारी लड़कियों की सखी ‘संजा’ -           गायत्री शर्मा संजा     श्राद्ध पक्ष में शाम होते ही गाँवों की गलियों में गूँजने लगते हैं संजा के गीत। कुँवारी कन्याओं की प्यारी सखी ‘संजा’, जब श्राद्ध पक्ष में उनके घर पधारती है तो कुँवारियों के चेहरे की रंगत और हँसी-ठिठौली का अंदाज ही बदल जाता है। सोलह दिन की संजा की सोलह आकृतियों में मानों कुँवारी लड़कियों के सपने भी दीवारों पर गोबर के चाँद-सूरज, फूल, बेल, सातिये, बंदनवार आदि अलग-अलग आकृतियों में सजने लगते हैं और अपने प्रियतम को पाने की ललक उनके गीतों के समधुर बोलों में तीव्र हो उठती है।   मालवाचंल की संजा यह स्त्रियों के एक-दूसरे से सुख-दुख को साझा करने की प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा ही है, जिसे कुँवारियाँ संजा बाई की उनकी सासु-ननद से हुई तीखी नोंकझोक के गीतों के माध्यम से एक-दूसरे से साझा करती है। इसे हम ग्रामीण संस्कृति में घुली मधुर संबंधों के प्रेम की मिठास ही कहेंगे, जिसके चलते दीवारों पर उकेरी जाने वाली संजा के प्रति भी युवतियों में सखी सा अपनत्व भाव दिखाई देता है और कुवारियाँ अपनी प्यारी संजा को अपने घर जाने की

भाषा के समझिए ‘भाव’

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          गायत्री शर्मा   यह भाषा ही है, जो भावों को जन्म देती है, जो हमारी कल्पनाओं को शाब्दिक अनुभूति प्रदान करती है। भाषा को निष्प्राण समझने की भूल कभी मत कीजिएगा क्योंकि व्याकरण भाषा के प्राण है। शब्द, इसका शरीर है और ध्वनि इसकी आवाज़ है। गौर से सुनो तो भाषा बोलती भी है, आँखों से देखों तो भाषा चलती भी है और महसूस करो तो भाषा मरती भी है। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज हम अपनी पहचान, यानि कि अपनी भाषा को भूल चुके है। यहीं वजह है कि वर्ष के एक दिन ’14 सिंतबर’ को ही हम हिन्दी को याद कर अगले ही दिन फिर से अंग्रेजी के गुलाम बन जाते हैं। ऐसा करते समय शायद हम यह भूल जाते हैं कि आज हमने भाषा का त्यजन किया है परंतु जिस दिन भाषा हमारा त्यजन कर देगी। उस दिन हमारी पहचान ही हमसे खो जाएगी और हमने अपने ही देश में पराये बन जाएँगे।          भाषा का पतन संस्कृति का पतन है और संस्कृति का पतन, देश का पतन। किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति में भाषा का सर्वाधिक योगदान होता है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होने के साथ ही हमें अपनी संस्कृति से जोड़े रखने वाली वह मजबूत गाँठ होती है, जिसकी मज

गणेश के पाँच वचन है खास

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-           गायत्री शर्मा गणेश विर्सजन, भावुकता का वह क्षण। जब हर भक्त अपने आराध्य शुभकर्ता, विघ्नहर्ता प्रभु श्री गणेश को भावभिनी बिदाई देता है व साथ ही उनसे वादा लेता है शरीर से विसर्जित होने पर भी मन से सदा अपने भक्तों से जुड़े रहने का। विर्सजन के विरोधाभासी रूप में यह न्यौता होता है गणेश को इस वर्ष प्रतीकात्मक विदाई देकर अगले वर्ष फिर नई खुशखबरी के साथ अपने घर-परिवार में विराजित करने का। गणेश को दिए वादे के साथ ही यह स्वयं से वादा होता है अपने परिवार तथा देश में प्यार व सद्भाव को कायम रखने में भागीदारी निभाने का। कल अनंत चर्तुदर्शी पर हमारे प्रतीकात्मक गणेश तो विसर्जित हो गए पर हमारी आस्था के गणेश अब भी हमारी भावनाओं में जीवित है। आस्था के प्रदर्शन के अंतिम पड़ाव पर जलमग्न होते हुए गणेश पानी की बूँदों की गुड़गुड़ाहट के साथ हमें अपने पाँच वचनों के संग छोड़े जा रहे हैं। ये पाँच वचन है – जल प्रदूषण से तौबा करने का, पीओपी की प्रतिमाओं व पॉलीथिन से परहेज करने का, सांप्रदायिक सौहार्द बनाएं रखने का, आपदा प्रबंधन हे‍तु अंशदान करने का व भ्रष्टाचार से गुरेज करने का। अब फैसला हमारा है

'कृष्ण' को संचालित करने वाली शक्ति है - 'राधा'

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- गायत्री शर्मा  राधा और कृष्ण प्रेम मार्ग के पुल के वह दो आधार है, जिनके बगैर सृष्टि में प्रेम की कल्पना ही अधूरी है। लीलाधारी कृष्ण समूची सृष्टि को संचालित करते हैं और कृष्ण को, जो शक्ति संचालित करती है, वह परम शक्ति है – राधा रानी। राधा, प्रेम में पवित्रता की वह कस्तूरी है, जिसकी सुंगध से वशीभूत होकर कृष्ण व्याकुल हो उठते है और इसी व्याकुलता में जब कृष्ण अपने हृदय को स्पर्श करते हैं। तब उनके अधरों के साथ हृदय से भी राधे-राधे नाम ही स्पंदित होता है। वह ‘राधा’ नाम की कस्तूरी कृष्ण की आत्मा में महककर कृष्ण को ‘राधामय’ और राधा को ‘कृष्णमय’ बनाती है। कहने को ‘राधा’, कृष्ण’ एक-दूसरे से अलग है पर प्रेम के चक्षुओं से देखों तो कृष्ण ही ‘राधा’ है और राधा ही ‘कृष्ण’ है।         यह राधा के प्रेम की ऊष्णता ही है, जो चंचल, ठगोरे, बावरे नंद के लाला को ‘राधा’ से सदैव जोड़े रखती है और यह दुनिया प्रेम की इस मोहिनी मूरत को ‘राधा-कृष्ण’ नाम से पूजता है। कृष्ण पर आकर्षण व नियंत्रण सब राधा का ही है। राधा ऐसी ‘अलबेली सरकार’ है, जो हमारे सरकार यानि कि ठाकुर जी को भी मोहित व नियंत्रित करने की शक्त

नईदुनिया की पत्रकार सोनाली राठौर नहीं रही ...

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‍- गायत्री शर्मा  आज सोनाली दीदी के जाते ही मेरी स्मृति में कैद उनकी यादों की पोटली अचानक खुल गई और उसमें से निकली लज़ीज लिट्टी-चौखे की महक, मंडी भाव की खबरें और उससे भी कहीं ज्यादा प्रेम विवाह से उनके जीवन म ें आए उस फरिश्ते के किस्से थे, जिससे उनकी जिंदगी के गुलशन में खुशियों की बहार थी।          कहते हैं हमारी जिंदगी की डोर ऊपर हाथों में होती है। वह सर्वशक्तिमान परमात्मा ही है, जो हमें धन-दौलत, ऐश-आराम, कामयाबी आदि दुनिया के सब सुख देता है। हमें अपने कर्म से किस्मत बदलने का मौका और हौंसला भी देता है पर एक महत्वपूर्ण चीज, जो वह परमात्मा हमें नहीं देता है। वह होता है – मौत पर नियंत्रण। हम लाख कोशिशें कर ले पर जब उस ऊपर वाले का बुलावा आता है तब हमें उसके आदेश पर जाना ही होता है। मृत्यु के देवता का कुछ ऐसा ही आदेश मेरी पत्रकार साथी को हुआ। पिछले दिनों इंदौर के सीएचएल अपोलो हॉस्पिटल में वेटिंलेटर पर लेटे-लेटे साँसों की टूटती-जुड़ती डोर के बीच मौत के घनघोर अँधेरे में जीवन की उम्मीदों के स्वप्न संजोती सोनाली आज हमारे बीच नहीं रही। 1 सितम्बर 2014, सोमवार की सुबह ‘नईदुनिया’ की यह वरिष्ठ प

‘संत’ और ‘समाज’ मिलकर करें ‘समाज सुधार’

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- गायत्री शर्मा   आस्था की चिकनी राह पर हमारे धर्म की कमजोर गाड़ी इतनी बार लुढ़की कि आज हमने ‘संत’ की जगह ‘साँई’ को ही मंदिरों से बाहर का रास्ता दिखा दिया। साँई के नाम पर सनातन संत की यह जंग अब ‘धर्म-संसद’ के वृहद रूप में मनमाने फतवे जारी करने का मंच बन चुकी है। जिसमें धर्म के नाम पर हमारी आस्था का मखौल उड़ाकर धर्म को जातिगत राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है। ऐसे में आप ही बताइएँ कि आखिर यह कैसा धर्म और कैसी ‘धर्म-संसद’ है, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता तो गौण हो गई है और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भाव सर्वोपरि? बार-बार साँई प्रतिमा से अपना सिर फोड़ने वाले हिंदुओं के धर्मगुरू को आखिरकार अचानक ऐसी क्या सनक सवार हुई कि वे खिसियाई बिल्ली की तरह ‘साँई हटाओं, साँई हटाओं’ की रट लगाए बैठे है?             ‘संत’, व ‘समाज’ का जुड़ाव बड़ा गहरा है। जब ‘समाज’ के साथ कोई ‘संत’ जुड़ जाता है तब उस संत से हमारी समाज कल्याण की अपेक्षा करना लाजिमी हो जाता है। व्यवहारिक तौर पर ‘संत’ से अभिप्राय धार्मिक प्रवचन करने वाले व्यक्ति से कहीं अधिक समाज को नव विचार व नव दिशा देने वाले व्यक्ति से है। सही माइनों म