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Showing posts from 2010

शीशा पॉर्लरों में युवाओं का जमावड़ा (2 दिसंबर 2010 नईदुनिया युवा)

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इंदौरी युवाओं में टैटू का क्रेज (2 दिसंबर के नईदुनिया 'युवा' में प्रकाशित मेरा आलेख)

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पढ़ाई के तरीके (9 दिसंबर के नईदुनिया 'युवा' में प्रकाशित मेरा आलेख)

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इंदौर के हॉट लवर्स प्वाइंट (नईदुनिया 'युवा' में दिनांक 9 दिसंबर को प्रकाशित मेरा आलेख)

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भ्रष्टाचार और घोटालों पर केंद्रित 9 दिसंबर 2010 के नईदुनिया 'युवा' में मेरा आलेख

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जॉब करें या बिजनेस

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कक्षा 10 वीं के बाद से ही अपने करियर को लेकर स्टूडेंट्स में संशय की स्थिति बनी ही रहती है। कई बार पढ़ाई अच्छी होने के कारण भी अच्छी जॉब और सैलेरी नहीं मिल पाती है और कई बार फैमिली बिजनेस होने के बाद भी युवा उस बिजनेस के भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं होता है। ऐसे में युवा अपने करियर को लेकर तनाव व संशय की स्थिति में फँसा रहता है। लेकिन यह स्थिति तब आती है। जब हम प्रापर प्लानिंग किए बगैर ही कोई भी काम शुरू कर देते हैं। जॉब या बिजनेस यही विषय लेकर मैंने चर्चा की प्रोटॉन बिजनेस स्कूल के स्टूडेंट्स से। जिनकी प्लॉनिंग सुनकर मैं स्वयं हैरान हो गई। मेरे द्वारा की गई इस स्टोरी का प्रकाशन 18 नवंबर 2010 के नईदुनिया युवा में हुआ था।  

पोस्टरों से घिरा मेरा शहर

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दोस्तों, जब कोई शहर महानगर की शक्ल तब्दील करता जाता है। तब कहीं न कही उसमें गंदगी के ढ़ेर, फेक्ट्रियों के बदबूदार पानी, जहरीला काला धुँआ छोड़ते वाहन और इधर-उधर जहाँ जगह मिले वहाँ पैर पसारते पोस्टर यदा-कदा देखने को मिल ही जाते हैं। मेरा शहर इंदौर भी एक ऐसा ही शहर है, जो अब विकास, आबादी और गंदगी के मामले में मिनी मुंबई बन रहा है। रिगल ब्रिज हो या पलासिया चौराहा, कलेक्टोरेट हो या टॉवर चौराहा हर जगह बड़े बड़े पोस्टर मुँह खोलकर हमारे बौनेपन का मजाक उड़ाकर अपने विदेशी ब्रांडों पर इठलाते नजर आ जाते हैं। पोस्टरों से लिपटे इस शहर के बारे में आज के युवा क्या सोचते हैं। इस विषय पर मैंने एक स्टोरी की थी। युवाओं के विचारों पर केंद्रित एक स्टोरी, जिसका प्रकाशन 18 नवंबर 2010 के नईदुनिया युवा के प्रथम पृष्ठ पर हुआ था। कृपया आप भी इस स्टोरी को पढ़े और मुझे अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँ। 

शराबियों के लिए रूकी राजस्थान परिवहन निगम की बस

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लगभग हर शनिवार की तरह पिछले शनिवार यानि दिनांक 23 अक्टूबर को मेरा फिर अपने गृहनगर रतलाम को जाना हुआ। हर बार की तरह इस बार भी दफ्तर में काम की व्यस्तताओं के चलते मेरी 4 बजे वाली 'इंदौर-जोधपुर' बस छूट गई। उसके बाद अपना काम खत्म करके भागते-दौड़ते अंतत: मैं 6:30 से 6:45 के बीच गंगवाल बस स्टैंड पहुँची। जल्दी से मैंने पार्किंग में गाड़ी रखी। इतनी देर में राजस्थान परिवहन की रतलाम जाने वाली दूसरी बस ‍भी रवाना हो चुकी थी। अब मेरे पास विकल्प के तौर पर राजस्थान परिवहन निगम की 'इंदौर-नाथद्वारा-फालना'और 'इंदौर-उदयपुर' बस ही थी। ये दोनों ही बस रतलाम होकर ही राजस्थान बार्डर में प्रवेश करती है इसलिए इंदौर से चलने वाली राजस्थान परिवहन निगम की लगभग हर बस मेरे शहर रतलाम जाती है।     मैं भी जल्दी से जल्दी रतलाम पहुँचने के चक्कर में रतलाम का टिकिट लेकर 'इंदौर-नाथद्वारा-फालना' की ओर जाने वाली बस क्रमांक RJ 22 PA 0932 बस में बैठ गई। बस में मुझे पीछे की 23 नंबर की सीट मिली थी पर आगे बैठने की जिद के चलते मैं हमेशा की तरह कंडक्टर की सीट पर बैठ ही गई। आमतौर पर राजस्थान परिवहन नि

माँ ने देखा जलता हुआ रावण

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इंदौर में दशहरे(रावण दहन) के अगले दिन 'बासी दशहरा' मिलने की परंपरा है। जिसमें 'पड़वा' की भाँति लोग एक-दूसरे के घर जाकर उन्हें सोना पत्ती (उस्तरा नामक पेड़ की पत्तियाँ) देकर दशहरे की बधाईयाँ देते हैं। चूँकि मैं रतलाम शहर से हूँ इसलिए इन इंदौरियों के कुछ त्योहारों से मैं भी थोड़ी बहुत अपरीचित हूँ। दशहरे की नहीं पर मेरे यहाँ भी माता की 'नवरात्रि' की धूम इंदौर के समान ही रहती है। यही कारण है कि यहाँ की नवरात्रि का मैंने भरपूर लुत्फ उठाया। कल रात को ही मेरा इंदौर में रहने वाली अपनी मौसी के घर जाना हुआ। उनके घर तक पहुँचते-पहुँचते रास्ते में मेरी मुलाकात आकर्षक वेषभूषा में सजे कई रावणों से हुई। जो बड़ी ही प्रसन्नचित्त मुद्रा में पटाखों से लैस होकर दाँत और मुँह दिखाकर मुस्कुरा रहे थे। मैंने भी मन ही मन इन रावणों से यही कहा कि मुस्कुरा ले बेटा!आखिरकार कुछ देर बाद तो तुझे पटाखों से ही जलना है। तब तू रोएगा और तुझे जलाने वाले मुस्कुराएँगे। तीन-चार जलते हुए रावणों का दीदार करने के बाद मैं पहुँची अपनी मौसी के घर। उनके घर के पड़ोस में ही गरबा पांडाल था। जहाँ दशहरे के दिन ग

विजयादशमी और रावण

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पहले गणेश जी फिर माताजी, फिर रावण और उसके बाद लक्ष्मी जी ... ऐसा लगता है जैसे सभी भगवान में इस बात की ट्यूनिंग चल रही हो कि कैसे वे एक के बाद एक आकर भक्तों को अपनी आव-भगत करने का मौका देंगे। बेचारे भक्त भी अपने शुभमंगल की कामना के लिए कभी लड्डू,कभी पेड़ा,कभी चूरमा तो कभी पकोड़े खिला-खिलाकर आए दिन भगवानों को प्रसन्न करने में लगे हुए हैं। घर में पधारों गजानन जी के बाद, अम्बे तू है जगदंबे काली और अब रामचंद्र कह गए सिया से ... के गीत गली-गली में यक ब यक सुनाई पड़ रहे हैं। चलिए अब बात करते हैं असत्य पर सत्य की विजय के पर्व 'विजयादशमी'की। इंदौर में विजयादशमी पर केवल आयुधों की ही पूजा नहीं होती है बल्कि यहाँ हर गली-मोहल्ले में रावण के प्रतीक पुतले बनाए जाते हैं,जिन्हें आतिशबाजियों के साथ जलता देखकर लोग खुशियाँ मनाते हैं और एक-दूसरे को दशहरे की बधाईयाँ देते हैं। दशहरे के दूसरे दिन लोगों के घर दशहरा मिलने जाने का चलन मुझे केवल इंदौर में ही देखने को मिला क्योंकि मेरे शहर रतलाम में केवल 'पड़वा'पर ऐसा होता है। लेकिन कुछ भी कहो इंदौर की विजयादशमी का आनंद ही कुछ और है। दूसरे भगव

माँ की आराधना नवरात्रि में

माँ दुर्गा की आराधना का पर्व 'नवरात्रि' अपने अवसान के साथ-साथ जोश, ऊर्जा व भक्ति के मामले में चरम पर पहुँचता जाता है। कोई अपने पदवेश (चप्पल-जूते) छोड़कर तो कोई नौ दिन तक कठोर उपवास रख माँ की भक्ति कर माँ से अपने परिवार के शुभमंगल की कामना करते हैं। दुल्हनों की तरह सजे गरबा-मंडल दिन भर सुस्ताकर शाम को फिर से माँ की आराधना के लिए तैयार होकर जगमगाने लगते हैं और सांझ ढ़लते-ढ़लते माँ के भक्ति गीतों व चंटियों की आवाजों से गुँजने लगते हैं। छोटी-बड़ी बालिकाएँ भी चमचमाते वस्त्रों के साथ इन गरबा मंडलों में अपने सुंदर गरबा रास की प्रस्तुति देकर इन्हें जीवनदान दे देती है। यदि मैं अपनी बात करूँ तो मुझे भी गरबा खेलने का बहुत शौक है। जिसके लिए मैं हर साल समय निकाल ही लेती हूँ। पर क्या करूँ व्यस्तताओं के चलते इस बार न तो मैं माँ के लिए उपवास रख पाई और न ही नौ दिनों तक गरबा खेलने जा पाई। इतना सब होने के बावजूद भी इसे माँ की कृपा ही कहे कि अष्टमी के दिन इंदौर के बड़ा गणपति स्थित शारदा नवदुर्गोत्सव समिति के आयोजकों ने मुझे बालिकाओं का गरबा देखने हेतु अतिथि के रूप में आमंत्रित किया व अतिथि होने

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

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वर्धा स्थित महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में हिंदी ब्लॉगिंग की आचार-संहिता पर 9 व 10 अक्टूबर को आयोजित दो दिवसीय गोष्ठी में सम्मिलित होकर बहुत अच्छा लगा। पहले दिन अपरीचित व दूसरे दिन सुपरीचित ब्लॉगरों से मेल-मिलाप व बातचीत करने में दो दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। वर्धा में दो दिवसीय प्रवास के दौरान मुझे देश भर से वर्धा आए ब्लॉगरों से मिलने का व लगातार दो दिनों तक उनके संपर्क में रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इनमें से सुरेश चिपलूनकर और यशवंत सिंह तो मैं पहले से ही परीचित थी इसलिए गोष्ठी के पहले दिन इन दोनों के दर्शन अपरीचितों के बीच सुकून की ठंडी छाँव की तरह थे। तभी तो मुझे देखकर यशवंत जी के मुँह से अनायास निकल ही गया कि गायत्री अब हम लगातार तीसरी बार किसी कर्यक्रम में साथ मिल रहे हैं। अब तो लगता है कि यहाँ कोई न कोई धमाका होगा। सच कहूँ तो धमाका हुआ भी ...। अब बात करते हैं इस गोष्ठी के सूत्रधार सिद्धार्थ जी के बारे में। जिनके स्नेहिल निमंत्रण पर मुझे अपने सारे कार्य छोड़कर वर्धा आना ही पड़ा। केवल ‍सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ही नहीं बल्कि उनकी श्रीमती र

श्राद्ध पक्ष में दीपावली

आज हमारा 60 वर्षों का इंतजार खत्म हुआ और माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद हम सभी ने मानो राहत की सास ली है। इस निर्णय के पूर्व व पश्चात पुलिस प्रशासन की सख्त चौकसी व हर चौराहे पर बड़ी मात्रा में मौजूदगी काबिलेतारीफ व आमजन की सुरक्षा के लिहाज से बहुत ही अच्छी थी। एक लंबे इंतजार के बाद आए इस फैसले पर अफवाहों का बाजार काफी पहले से गर्म था पर फिर भी लोगों को यह विश्वास था कि न्यायालय का जो भी निर्णय होगा वह निसंदेह ही दोनों पक्षों की भावनाओं को ध्यान में रखकर ही लिया जाएगा और वैसा ही हुआ भी। जहाँ तक एक पत्रकार होने के नाते मैंने लोगों से इस विषय पर चर्चा की तो उनका यही कहना था कि अयोध्या में मंदिर बने या मस्जिद, उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे तो बस यही चाहते है कि फैसला जल्द से जल्द व दोनों समुदायों की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखकर लिया जाए। सच कहूँ तो अब आम आदमी भी ऐसे मुद्दों पर कट्टरवादिता दिखाकर या तोड़-फोड़ कर अपना समय व जन या धन की क्षति करने के जरा भी मूड में नहीं है। अब वो दिन गए जब लोग लड़ाई झगड़े करने की फिरात में घुमा करते थें। कुछेक शरारती तत्वों को छोड़कर हर क

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना

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जात-पात, धर्म-मजहब हम हमें अलगाववाद या एकेश्वरवाद नहीं सिखाता है। याद रखें कोई मजहब कभी कट्टरपंथिता नहीं लाता। हमें कट्टरपंथी तो हमारी सोच बनाती है। जो मंदिर और मस्जिद में दूरियाँ बढ़ाती है। गीता कभी मुस्लिम को बैरी बनाने का और कुरान कभी हिंदु को मार गिराने का संदेश नहीं देती है। यह सब हम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करते है और अल्लाह और राम के नाम को कलंकित करते है। क्यों नहीं हम ऐसे समाज की कल्पना करते है। जहाँ मं‍दिर में अज़ान और मस्जिद में आरती हो? ऐसा समाज हकीकत में भी बन सकता है। बस जरूरत है तो थोड़ा नम्र होने की व अपनी कट्टरपंथिता छोड़ने की। - गायत्री शर्मा चित्र हेतु साभार : देवेंद्र शर्मा, रतलाम

16 सिंतबर 'युवा' प्रथम पृष्ठ

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16 सिंतबर 2010 का नईदुनिया 'युवा'

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प्रति गुरूवार सुबह-सुबह आपके घर आकर दस्तक देना और आपके साथ गरमा-गरम चाय पीना मुझे बड़ा अच्छा लगता है। पर क्या यह सोच दुखी भी होती हूँ और खुश भी कि मेरी जगह मेरी कलम आपसे मेरी पहचान कराती है और आपकी अच्छी बुरी प्रतिक्रियाओं को मेरे दफ्तर लेकर आती है। आप सभी पाठक ही मेरी कलम की ताकत है। जो लिखने की मेरी ऊर्जा को बढ़ाते हैं। यदि युवा का जिक्र निकला ही है तो क्यों न पढ़ ली जाए 16 सितंबर 2010 नईदुनिया युवा में प्रकाशित मेरी स्टोरियाँ। एक ओर बात कि मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। - गायत्री शर्मा

जब होने लगे मंदिरों में अजान

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कैसा लगे जब हिंदु करे अजान और मुस्लिम गाए आरती जब हम सभी रहे मिलजुलकर और प्रेम बने जीवनरथ का सारथी जब एक सी ऑक्सीजन हम सभी के दिल को है धड़काती तब जाति-धर्म के नाम पर हमारी सांसे क्यों है घुट जाती? क्यों नहीं मक्का शरीफ को गंगा जल की धार है पावन बनाती ? अल्लाह नहीं कहता हमें मस्जिद से बाहर जाने को पर इंसान बन अल्लाह कह जाता है हिंदू को मुस्लिम बन जाने को मंदिरों की घंटियाँ मुस्लिम की इबादत पर भी सुनाई आती है पर पुजारी की पूजा की आरती कभी मस्जिद में क्यों नहीं जाती है? बहुत से प्रश्न अब तक है अनुत्तरित जिन्हें अब सुलझना चाहिए मुस्लिम के मुँह से गीता और हिंदु के मुँह से 'अल्लाह हो अकबर' अब तो निकलना चाहिए 'मौन'या 'हिंसा'नहीं है किसी समस्या का हल प्रेम और भाईचारा ही है अब सुलह का एक विकल्प आओं करे एक ऐसे देश की कल्पना जहाँ हर घर में मस्जिद,मस्जिद, गुरूद्वारा हो ईद की मीठी सेवईयाँ के दूध में गणेश चतुर्थी के मोतीचूर के लड्डू का मसाला हो - गायत्री शर्मा

शिक्षक दिवस विशेष 'नईदुनिया युवा' इंदौर

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गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता इतना मधुर होता है कि उसमें शब्दों की बजाय मौन ही सबकुछ कह जाता है। गुरू के मौन में गुरु की गुरुता, उसका ज्ञान, उसका अनुभव और शिष्य की कामयाबी में गुरु की झलक और शिष्य की मेहनत स्वत: ही दिखाई पड़ती है। इस रिश्ते का बखान करने के लिए न तो कोई झूठी तारीफ के शब्द चाहिए और न ही कोई महँगे उपहार। गुरु का दिल तो शिष्य के मन में उसके प्रति सम्मान और शिष्य की कामयाबी को देख ही गद्गद हो जाता है। गुरु भी स्वयं को तभी धन्य समझता जब उसका शिष्य दुनिया में अपने अच्छे कार्यों से गुरु के नाम को रोशन करता है। गुरु शिष्य के बीच समझ और सहयोग के इसी रिश्ते पर आधारित मेरी कवर स्टोरी है 2 सितंबर के नईदुनिया युवा में। कृपया इस स्टोरी को पढ़ मुझे अपने फीडबैक अवश्य दें। आप इस समाचार पत्र को www.naidunia.com पर लॉग इन 'युवा' वाले बॉक्स पर क्लिक कर भी पढ़ सकते हैं। - गायत्री

याद आती है माँ

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आज फिर से कसक उठी है मन में और हुआ है जीने-मरने के बीच द्वंद्व जीवन कहता है मैं तुझे तिल तिल खाऊँगा मौत का सौदागर कहता है करले मेरा आलिंगन मैं तुझे दु:खों से मुक्ति दिलाऊँगा .... कभी तो लगता है क्या इन संघर्षों का अंत होगा या फिर अंत होगा रात दिन दु:खों की सिसकियों का दोनों का मुझे कोई अंतिम छोर नजर नहीं आता है इसी बीच मेरे भीतर बैठा दिल कसमसाता है लेकिन दु:ख की घडि़यों में भी कोई ऊर्जा दे जाता है मेरे आँसूओं को पौछता मुझे माँ का झीना आँचल नजर आता है जो मुझमें फिर से जीने का जोश जगाता है सच कहूँ तो दु:ख में हमेशा माँ का चेहरा ही मुस्कुराता नजर आता है। मेरी प्रेरणा मेरी माँ है,जिसके संघर्ष ही मेरी ऊर्जा है ‍जिसकी खुशियाँ ही मेरे जीवन की सार्थकता सच कहूँ तो दोस्तों,जब जब भ‍ी यह दुनिया मुझे सताती है तब तब मुझे माँ की शीतल गोद नजर आती है। - गायत्री शर्मा

ये मिलन है कितना प्यारा

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कितना सुकून है दोस्तों प्रकृति की गोद में ... हरियाली का घना आँचल है दोस्तों प्रकृति की गोद में ... कल कल का कलरव करते झरने फूटे चट्टानों के सीनों से बरखा रानी की बाट जोहते थे जो पिछले कई महीनों से बरखा से दीदार करने को प्रकृति ने खुद को सजाया उसकी खूबसूरती पर निखार लाने को सूरज मीठी मीठी सुनहरी धूप लाया बादल ने ठंडी बयारों का आँचल प्रकृति को पहनाया देखों बरखा संग प्रकृति के मधुर मिलन का मौसम आया। - गायत्री शर्मा नोट : यह कविता मेरी स्वरचित है व साथ ही कविता के साथ संलग्न चित्र भी मेरे द्वारा ही लिया गया है। कृपया इनका उपयोग करने से पूर्व मेरी अनुमति जरूर लें।

अबकी राखी लाई लंबा इंतजार

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राखी पर अपने भाई अमित के इंतजार में भूमिका दरवाजे की ओर टकटकी लगाए उसके आगमन के इंतजार में पलके बिछाए बैठी है। वहीं अमित के माता-पिता दरवाजे से आती हर आहट पर चौककर देखते हैं कि शायद कोई उनके बेटे अमित के मिलने की खबर आया होगा। जिसे सुन उनके मन को कुछ संतोष मिलेगा और उनका लंबा इंतजार खत्म होगा पर अब वक्त हर दिन उनके हाथों से रेत की तरह फिसलता जा रहा है लेकिन उनके बेटे का कोई पता नहीं चल पा रहा है। अबकी राखी पर जहाँ हर घर में जश्न का माहौल है। वहीं रतलाम में कस्तूरबा नगर निवासी हरीशचंद्र शर्मा के घर में पिछले कई दिनों से सन्नाटा ही सन्नाटा पसरा हुआ है। यहाँ बस गूँजती है तो फोन की घंटियाँ या अमित के इंतजार में बार-बार बेसब्र होते माता-पिता के करूण रूदन की आवाजें। इस घर में हर किसी के माथे पर नजर आती चिंता की मोटी लकीरे व पल-पल में डबडबाती आँखों के आँसू बस हर मिलने-जुलने वालों से यही सवाल पूछ रहे है कि क्या आप हमारे अमित को ढूँढकर ला सकते हो? इस परिवार का बेटा अमित शर्मा गुड़गाँव की 'इंफो एज इंडिया' कंपनी में फील्ड ऑफिसर के पद पर कार्य कर रहा था। कंपनी के लिए बिहार के बक्सर में

एक सुनहरी शाम

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इस धुंध में भी एक चेहरे की मधुर मुस्कान बाकी है। यादों के पुरिंदे में अब तक एक सुनहरी शाम बाकी है। बीत गया हर लम्हा खत्म हो गया ये साल लेकिन अभी भी कुछ यादें बाकी है। एक साथी सफर का अब तक याद है मुझे। उस अजनबी रिश्ते का अब तक अहसास है मुझे। खुशियाँ इतनी मिली कि झोली मेरी मुस्कुराहटों से भर गई।‍ जिंदगी में सब कुछ मिला मुझे पर तेरी कमी खल गई। इस साथी को 'अलविदा' कहना खुशियों से जुदा होना था, अपनों से खफा होना था। परंतु वो रहेगा कायम हमेशा मेरे होठों की मुस्कान में, इन आँखों की तलाश में, मेरी लेखनी के शब्दों में ..... - गायत्री शर्मा यह कविता मेरे द्वारा अपने वेबदुनिया वाले ब्लॉग पर 2 जनवरी 2009 को प्रकाशित की गई थी।

नजर आती है वो सामने वाली कुर्सी

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बार-बार मेरी निगाह मेरे सामने वाली कुर्सी पर जाकर टिक जाती है। जहाँ कभी वेबदुनिया के हमारे साथी पत्रकार अभिनय कुलकर्णी बैठा करते थें। उनकी जितनी कमी पिछले महीने उनके द्वारा वेबदुनिया को खुशी-खुशी अलविदा कहकर जाने से न हुई। उससे ज्यादा कमी आज उनके दुनिया छोड़ जाने से हो रही है। अब बार-बार मेरी नजर उसी खाली‍ पड़ी कुर्सी पर जाकर ठहर जाती है। जहाँ कभी मराठी भाषा में हँसी-ठिठौली की व फोन पर बातचीत की आवाजें मेरे कानों में पड़ा करती थी। आज भी जिंदा हूँ मैं : मराठी वेबदुनिया का एक सशक्त पत्रकार 19 जुलाई 2010 की रात को हम सभी से रूठकर अंधेरे के आगोश के साथ ही रात ही को पौने दो बजे सदा के लिए मौत की गहरी नींद में सो गया। जब दूसरे दिन इस दुर्घटना की खबर हम सभी को लगी। तब अचानक वो मँजर आँखों के सामने आ गया। जब कभी वेबदुनिया के कार्यक्रमों में हम सभी एक साथ बैठकर मुस्कुराते थें। नवरात्रि, गणेशोत्सव ... आदि अवसरों में हमेशा हँसते-मुस्कुराते अभिनय जी का चेहरा आज मेरी आँखों के सामने आकर मानों बार-बार यहीं कह रहा हो कि मैं मरा नहीं हूँ। मैं जिंदा हूँ आप सभी के आत्मविश्वास में, आपके दिलों में आपक‍ी ऊ

कैमरे के सामने मैं और नेहा हिंगे

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आज दूरदर्शन के लिए मुझे नेहा हिंगे का साक्षात्कार लेने का मौका मिला। इसी बहाने मैंने नेहा को करीब से जाना। साक्षात्कार के दौरान मेरे बगल वाली कुर्सी पर बैठी नेहा के चेहरे पर अब भी वह चमक बाकी थी, जो उनके चेहरे पर उस वक्त थी। जब वह फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल 2010 बनी थी। नेहा के साथ ही स्टूडियों में उनकी माताजी,बहन,बुआ और पिताजी थें। जिनका साथ पाकर नेहा बहुत खुश थी। अपने परिवार के साथ अपने पसंदीदा शहर इंदौर की यात्रा पर आई नेहा को इस शहर ने बहुत प्यार और सम्मान देकर सिर आँखों पर बिठाया और नेहा ने भी अपनी मधुर मुस्कुराहट और प्यारी सी बोली से सभी इंदौरवासियों का दिल जीत लिया। यदि साक्षात्कार की बात करें करीब आधे घंटे तक चला यह साक्षात्कार इतना शानदार रहा कि उसने नेहा के साथ साथ मेरे भी चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेर दी। इस साक्षात्कार के बाद मुझे भी पता चला कि सिर पर मिस इंडिया का सम्माननीय क्राउन पहनने वाली नेहा हकीकत में भी इस क्राउन की असली हकदार है। सच कहूँ तो नेहा ने अपनी खुली आँखों से सपने देखे व उन्हें हकीकत बना हम सभी को बता दिया कि आजकल लड़कियाँ भी हर मामले में लड़कों से आगे है। नेहा

नेहा हिंगे से मेरी चर्चा के कुछ अंश

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मध्यप्रदेश के देवास शहर से अपने सफर की शुरूआत करने वाली नेहा ने जो भी सपना देखा। उसे पूरा कर दिखाया। बचपन से ही 'मिस इंडिया' बनने का ख्वाब देखने वाली नेहा आज बचपन में देखे अपने सपने को जी रही है। नेहा के 'फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल 2010' का क्राउन जीतने के दो दिन बाद जब मेरी नेहा से फोन पर बातचीत हुई। तब उनके जीत की खुशी उनके शब्दों में घुली मिठास से झलक रही थी। मृदुभाषी नेहा से मेरी उस दिन से लेकर अब तक कई बार टेलीफोन पर बातचीत हो चुकी है पर मुझे इस बात की बेहद प्रसन्नता है कि उनसे हुई पहली चर्चा में मुझे इस बात का तनिक भ‍ी आभास नहीं हुआ कि यह वहीं लड़की है, ‍‍‍जिसने दो ‍दिन पहले 'फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल' का खिताब जीता है। स्वयं की जीत पर न कोई गुरूर और न ही बातचीत में किसी तरह का अक्खड़पड़ ... कुछ ऐसी ही है नेहा। जिसका बस एक ही शौक है और वह है मोबाइल को घंटों कान से लगाकर बतियाने का। खुशमिजाज और अलमस्त नेहा की आवाज फोन पर पूर्णत: आत्मविश्वास से लबरेज थी। बातों ही बातों में नेहा ने मुझे बताया कि बचपन में वो बार-बार आईने में खुद को देखकर तरह-तरह के पोज़ बना

अब आप भी जुड़े नेहा हिंगे के साथ

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आज हम सभी युवाओं के लिए गौरव की बात है कि हमारे प्रदेश की नेहा हिंगे ने फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल 2010 का क्राउन जीता है। आत्मविश्वास व सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज नेहा पूना में रहकर आज भी मध्यप्रदेश के देवास व इंदौर शहरों को नहीं भूल पाई है। इन दोनों शहरों में बिताए अपने बचपन के दिनों का जिक्र करते वह नहीं थकती है। आखिर हो भी क्यों न,इन दोनों शहरों से नेहा की बचपन की यादें जो जुड़ी है। मुझे खुशी है कि फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल का क्राउन जीतने के बाद सर्वप्रथम मैंने ही मध्यप्रदेश के एक प्रतिष्ठित अखबार के लिए नेहा का साक्षात्कार लिया था। तब से अब तक नेहा और हमारे बीच पत्रकार और सेलिब्रिटी से शुरू हुआ रिश्ता अब हमारी दोस्ती में तब्दील हो गया है। नेहा से मेरी कल और आज भी बातचीत हुई परंतु इस बार हमारी चर्चा मीडिया संबंधित विषय पर न होकर के दोस्ती का हक माँगने वाले दोस्तों के रूप में हुई। आप सभी को यह जानकर खुशी होगी कि आप सभी की चहेती नेहा अब गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए फंड एकत्र कर रही है। 'आकांक्षा' और 'टीच फॉर इंडिया' संस्था से जुड़कर नेहा अब

बरखा का श्रंगार

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बरखा की बूँदों ने किया श्रंगार। सूरज ने लुटाया मुझ पर अपना प्यार। कल तक था मैं गुमनाम जलता था तपिश में मैं। बरखा रानी चुपके से आई धीरे से कानों में फुसफुसाई। बूँदे बोली मुझसे क्यों है तू उदास? चल मेरे साथ कर ले मौज-मस्ती और उल्लास। खुशबू अपनी तू लुटा झुम-झुम के तू गा। मस्त पवन के झोको संग तू मंद-मंद मुस्का। पवन लेकर चली पाती प्रेम की बूँदों ने मधुर गान गाया। बरखा के मौसम में फूल खुलकर मुस्कुराया। -गायत्री (यह कविता मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग aparajita.mywebdunia.com पर 26 मई 2008 को पोस्ट की गई थी।) मेरी यह कविता आपको कैसी लगी, आपके विचारों से मुझे अवश्य अवगत कराएँ।

हे ईश्वर! तू कहाँ है?

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ढ़ूढँती हूँ तुझे पहाड़ों, कंदराओं में कहते है तू बसता है मन के भावों में पुष्प, गंध, धूप क्या करू तुझे अर्पित? खुश है तू अंजुली भर जल में तुझमें मुझमें दूरी है कितनी? मीलों के फासले है या है समझ अधूरी क्या तू सचमुच बसा है पाषाण प्रतिमाओं में? या तू बसा है दिल की गहराईयों में आखिर कब होगा तेरा मेरा साक्षात्कार? मिलों मुझसे पूछने है तुझसे कई सवाल अब मन के इस अंधकार को दूर भगाओं हे ईश्वर जहाँ भी हो अब तो नजर आओ। - गायत्री शर्मा (22 नवंबर 2008 को मेरे द्वारा मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग aparajita.mywebdunia.com पर मेरे द्वारा यह कविता पोस्ट की गई थी।) मेरी यह कविता आपको कैसी लगी? आपके विचारों से मुझे अवश्य अवगत कराएँ।

कराह उठी मानवता

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कराह उठी मानवता मौत के इन दंरिदों से बू आती है दगाबाजी की पड़ोसी के इन हथकंडों से। हर बार बढ़ाया दोस्ती का हाथ प्यार नहीं लाशे बनकर आई उपहार बस अब खामोश बैठों देश के सत्ताधारों अब वक्त है करदो शासन जनता के हवाले। जेहाद का घूँट जिसे पिलाया जाता भाई को भाई का दुश्मन बताया जाता वो क्या जाने प्यार की भाषा प्यार निभाना जिसे न आता? मेरा देश जहाँ है शांति और अमन दुश्मन नहीं सबके दोस्त है हम जरा आँखे खोलों ऐ दगाबाज नौजवानों अपने भटके कदमों को जरा सम्हालों। जानों तुम उन माओ का दर्द जिसने खोया है अपना लाल सेज सजाएँ बैठी थी दुल्हन पूछे अब पिया का हाल। उन अनाथों के सपने खो गए माँ-बाप जिनके इन धमाको में खो गए ममता लुटाते सगे-संबंधी सारे माँ-बाप की लाशों से लिपटकर रोते ये बेचारे। आतंक का तांडव मचाकर क्यों माँगता है तू मौत की भीख? ऐ दरिंदे जरा सोच उन लोगों के बारे में जो हो गए अब लाशों में तब्दील। कब्रगाह बने है आज वो स्थान जहाँ बसते थें कभी इंसान काँपती है रूहे अब वहाँ जाने से आती है दुर्गंध अब पड़ोसियों के लिबाज़ों से। - गायत्री शर्मा (मुंबई आतंकी हमलों के बाद 3 दिसंबर 2008 को मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग

औरत का सच्चा रूप है माँ

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बचपन में लोरियाँ सुनाती माँ हर आहट पर जाग जाती माँ आज गुनगुनाती है तकिये को लेकर भिगोती है आँसू से उसे बेटा समझकर स्कूल जाते समय प्यार से दुलारती माँ बच्चे के आने की बाट जोहती माँ अब रोती है चौखट से सर लगाकर दुलारती है पड़ोस के बच्चे को करीब बुलाकर कल तक चटखारे लेकर खाते थे दाल-भात को और चुमते थें उस औरत के हाथ को आज फिर प्यार से दाल-भात बनाती है माँ बच्चे के इंतजार में रातभर टकटकी लगाती माँ लाती है 'लाडी' बड़े प्यार से लाडले के लिए अपनी धन-दौलत औलाद पर लुटाती माँ आज तरसती है दाने-पानी को यादों और सिसकियों में खोई रहती माँ लुटाया बहुत कुछ लुट गया सबकुछ फिर भी दुआएँ देती है माँ प्यार का अथाह सागर है वो औरत का सच्चा रूप है माँ औरत का सच्चा रूप है माँ .... - गायत्री शर्मा (यह कविता मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग aparajita.mywebdunia.com पर 11 मई 2009 को पोस्ट की गई थी।) मेरी यह कविता आपको कैसी लगी, आपके विचारों से मुझे अवश्य अवगत कराएँ।